प्रार्थना का महत्व और अभ्यास

प्रार्थना का महत्व और अभ्यास

 

प्रार्थना का महत्व और अभ्यास

 

आजकल तुम लोग प्रार्थना कैसे करते हो? यह धार्मिक प्रार्थनाओं पर एक सुधार कैसे है? प्रार्थना के महत्व के बारे में दरअसल तुम लोग क्या समझते हो? क्या तुम लोगों ने इन प्रश्नों की जाँच की है? प्रत्येक व्यक्ति जो प्रार्थना नहीं करता है, परमेश्वर से दूर है, प्रत्येक व्यक्ति जो प्रार्थना नहीं करता है, वह अपनी इच्छा पर चलता है; प्रार्थना की अनुपस्थिति में परमेश्वर से दूरी और परमेश्वर के साथ विश्वासघात अंतर्निहित है। प्रार्थना के साथ तुम लोगों का वास्तविक अनुभव क्या है? अभी, परमेश्वर का कार्य पहले ही समाप्ति के निकट पहुँच रहा है और परमेश्वर और मनुष्य के बीच का सम्बन्ध मनुष्य की प्रार्थना के द्वारा देखा जा सकता है। तुम कैसा व्यवहार करते हो, जब तुम्हारे अधीनस्थ लोग उन परिणामों के लिए तुम्हारी चापलूसी और प्रशंसा करते हैं, जो परिणाम तुम अपने कार्य में लाते हो? तुम कैसी प्रतिक्रिया करते हो, जब लोग तुम्हें सुझाव देते हैं? क्या तुम लोग परमेश्वर की उपस्थिति में प्रार्थना करते हो? तुम लोग तभी प्रार्थना करते हो जब तुम्हारे पास मसले या कठिनाइयाँ होती हैं, परन्तु क्या तुम लोग उस समय प्रार्थना करते हो जब तुम्हारी परिस्थितियाँ अच्छी होती हैं, या जब तुम महसूस करते हो कि तुम्हारी सभा सफल हुई? तो तुम लोगों में से अधिकतर प्रार्थना नहीं करते हैं! यदि तुमने कोई सफल सभा की, तो तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए; तुम्हें स्तुति की एक प्रार्थना करनी चाहिए। यदि कोई तुम्हारी प्रशंसा करता है, तो तुम अहंकारी हो जाते हो, तुम महसूस करते हो कि तुम्हारे पास सत्य है, तुम ग़लत परिस्थिति में गिर जाते हो, और तुम्हारा हृदय प्रसन्न होता है। तुम्हारे पास स्तुति की एक प्रार्थना नहीं होती है, धन्यवाद की प्रार्थना तो बिल्कुल भी नहीं होती है। तुम्हारे इस परिस्थिति में गिरने का परिणाम यह होता है कि तुम्हारी अगली सभा नीरस होगी, तुम्हारे पास कहने के लिए शब्द नहीं होंगे, और पवित्र आत्मा कार्य नहीं करेगा। लोग अपनी ही परिस्थिति को नहीं समझ सकते, वे थोड़ा सा कार्य करते हैं, और फिर अपने उस कार्य के फल का आनन्द लेते हैं। एक नकारात्मक परिस्थिति में, यह बताना कठिन है कि ठीक होने के लिए उन्हें कितने दिनों की आवश्यकता होगी। इस प्रकार की परिस्थिति सब से खतरनाक है। तुम सब लोग प्रार्थना करते हो जब तुम्हारा कोई मसला होता है या जब तुम्हें चीज़ें स्पष्ट रूप से नहीं दिखाई देती हैं; तुम लोग उस समय प्रार्थना करते हो जब तुम्हें किसी के बारे में सन्देह और असमंजस होते हैं या तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव उजागर हो जाता है। तुम लोग मात्र उस समय प्रार्थना करते हो जब तुम लोग किसी चीज़ की ज़रूरत में होते हो। तुम लोगों को उस समय भी अवश्य प्रार्थना करनी चाहिए, जब तुम लोग अपने कार्य में कुछ सफलता प्राप्त करते हो। जब तुम अपने कार्य में कुछ परिणाम प्राप्त करते हो, तुम उत्तेजित हो जाते हो, और एक बार जब तुम उत्तेजित हो जाते हो, तो तुम प्रार्थना नहीं करते हो; तुम सर्वदा प्रसन्न होते हो और भीतर ही भीतर सर्वदा फँसे रहते हो। तुम लोगों में से कुछ लोग इस समय अनुशासन प्राप्त करते हैं: जब तुम खरीदारी के लिए बाहर जाते हो, और तुम किसी समस्या में फँस जाते हो और तुम्हारे साथ कुछ ग़लत हो जाता है; दुकानदार तुम्हें बहुत से कठोर वचन कहता है और तुम असहज और दबाव महसूस करते हो, और तुम अभी भी नहीं जानते कि तुमने किस तरह से परमेश्वर के विरुद्ध पाप किया है। वस्तुतः, तुम्हें अनुशासित करने के लिए परमेश्वर कई बार बाहरी वातावरण का उपयोग करता है; उदाहरण के लिए, वह इस प्रकार की बातों का उपयोग करता है जैसे कि कोई अविश्वासी तुम्हें कोस रहा है, या तुम्हें बेचैन करने के लिए तुम्हारा पैसा चोरी हो गया है। अन्त में, प्रार्थना करने के लिए तुम परमेश्वर की उपस्थिति में आओगे, और जब तुम्हारे प्रार्थना करते समय कुछ शब्द बाहर आएँगे। तुम पहचान जाओगे कि तुम्हारी परिस्थिति सही नहीं थी, उदाहरण के लिए, तुम स्वयं से सन्तुष्ट और प्रसन्न थे…, फिर तुम अपनी आत्म-सन्तुष्टि से घृणा महसूस करोगे। तुम्हारी प्रार्थना में वचनों के साथ-साथ तुम्हारे अन्दर की ग़लत परिस्थिति भी बदल जाएगी। जैसे ही तुम प्रार्थना करोगे, पवित्र आत्मा तुम पर कार्य करेगा; वह तुम्हें एक प्रकार की अनुभूति प्रदान करेगा और तुम्हें उस गलत परिस्थति से बाहर ले आएगा। प्रार्थना खोजने के बारे में ही नहीं है। यह ऐसा नहीं है कि जब तुम्हें परमेश्वर की आवश्यकता हो, तो तुम प्रार्थना करो, और जब तुम्हें परमेश्वर की आवश्यकता न हो तो प्रार्थना न करो। क्या तुम लोगों ने देखा है कि यदि तुम लोग बिना प्रार्थना किए एक लम्बा समय निकाल देते हो, तो यद्यपि तुम लोगों के पास ऊर्जा होती है और तुम लोग नकारात्मक भी नहीं होते हो, या तुम लोग को लगता है कि भीतर से तुम लोगों की एक विशेष रूप से सामान्य स्थिति है, तो तुम लोगों को महसूस होगा मानो कि तुम लोग स्वयं ही कार्य कर रहे हो और तुम लोग जो कुछ करते हो उसके कोई परिणाम नहीं हैं?

 

मैंने पहले कहा है कि: "लोग अपने ही कामों में व्यस्त हैं और अपनी ही बातें करते हैं।" आजकल, लोग जब कार्य करते हैं, तो वे प्रार्थना नहीं करते हैं; उनके हृदयों में परमेश्वर बिल्कुल भी नहीं है, और वे सोचते हैं कि: "मैं इसे बस कार्य-प्रबन्धन के अनुसार ही करूँगा और किसी भी प्रकार से मैं कुछ भी ग़लत नहीं करूँगा या किसी भी चीज़ को अस्तव्यस्त नहीं करूँगा…" तुमने प्रार्थना नहीं की और इसके अतिरिक्त तुमने धन्यवाद भी नहीं दिया। यह परिस्थिति खौफ़नाक है! प्रायः, तुम जानते हो कि यह परिस्थिति सही नहीं है, परन्तु यदि तुम्हारे पास सही तरीका नहीं है, तो तुम बदल नहीं सकते हो। भले ही तुम सत्य को समझ भी जाओ, तब भी तुम इसका अभ्यास नहीं कर पाओगे; भले ही तुम अपने भीतर की अनुपयुक्त परिस्थिति (घमण्डी, भ्रष्ट और विद्रोही होने) को जान भी जाओ, तब भी तुम इसे समायोजित करने या दबाने में समर्थ नहीं होगे। लोग अपने कार्य करने में व्यस्त हैं और वे पवित्र आत्मा के कार्य या संचालन पर ध्यान नहीं देते हैं। वे मात्र अपने ही मसलों की परवाह करते हैं, और जिसके परिणामस्वरूप, पवित्र आत्मा उन्हें त्याग देता है। एक बार जब पवित्र आत्मा उन्हें त्याग देता है, तो वे अन्धकार और शुष्क महसूस करेंगे; वे रत्ती भर भी पोषण या आनन्द प्राप्त नहीं करेंगे। अनेक लोग आधे साल में मात्र एक बार प्रार्थना करते हैं। वे अपने मसलों का ध्यान रखते और अपना कार्य करते हैं, परन्तु वे नीरस महसूस करते हैं, कई बार वे विचार करते हैं कि: "मैं क्या कर रहा हूँ, और यह कब समाप्त होगा?" यहाँ तक कि इस प्रकार के विचार भी उत्पन्न होंगे। एक लम्बे समय तक प्रार्थना न करना बहुत ख़तरनाक होता है! प्रार्थना बहुत ही ज़रूरी है। बिना प्रार्थना के कलीसिया का जीवन सभाओं को नीरस और शुष्क बना देता है। इसलिए, जब तुम लोग एकत्रित होते हो, तो तुम लोगों को अवश्य प्रार्थना और स्तुति करनी चाहिए, और पवित्र आत्मा विशेष रूप से अच्छी तरह से कार्य करेगा। जो ताक़त पवित्र आत्मा लोगों को प्रदान करता है, वह अनन्त है; लोग इसे बिना ख़त्म किए हर समय उपयोग कर सकते हैं—यह सदैव उपलब्ध है। अपने ऊपर भरोसा करते हुए, हो सकता है लोगों के पास बकबक करने का गुण हो, परन्तु यदि इसमें पवित्र आत्मा कार्य नहीं करता है, तो वे क्या निष्पादित करने में समर्थ हैं? प्रायः, लोग एक या दो वाक्यांशों के साथ तीन से पाँच बार प्रार्थना करते हैं, "हे परमेश्वर, मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ, मैं तेरी स्तुति करता हूँ," और फिर उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता है, वे अपने मुँह नहीं खोल सकते हैं। यह किस स्तर का विश्वास है; यह बहुत ही खतरनाक है! है न? लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, परन्तु उनके पास उसकी स्तुति करने या धन्यवाद देने के लिए शब्द नहीं होते हैं, और परमेश्वर को महिमा देने के लिए उनके पास शब्द नहीं होते हैं," और वे यहाँ तक कि "परमेश्वर से निवेदन करें" शब्दों को कहने का भी साहस नहीं करते हैं, और उन्हें कहने में वे बहुत लज्जित होते हैं। वे बहुत ही अधम हैं! इस तथ्य के बावज़ूद कि तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो और परमेश्वर को अपने हृदय में स्वीकार करते हो, यदि तुम परमेश्वर की उपस्थिति में नहीं आते हो, और तुम्हारा हृदय परमेश्वर से दूर है, तो पवित्र आत्मा कार्य नहीं करेगा। विशेष रूप से तुम आगुआ लोग, हर सुबह जब तुम जागते हो, तुम्हें प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। तुम्हारे प्रार्थना करने के पश्चात् तुम्हारा दिन विशेष रूप से अच्छा और समृद्ध होगा और तुम पवित्र आत्मा को हर समय तुम्हें सुरक्षित करते हुए अपने पक्ष में महसूस करोगे। यदि तुम एक दिन के लिए प्रार्थना नहीं करते हो, या यदि तुम बिना प्रार्थना किए तीन से पाँच दिन तक निकाल देते हो, तो तुम विशेष रूप से अकेला और उदास महसूस करोगे। तुम्हें अपने प्रियजनों की याद आएगी और उनके लिए तुम्हारी तड़प अत्यधिक प्रगाढ़ हो जाएगी।

 

अब मैंने पाया है कि सभी लोगों को समस्या होती है: जब उनका कोई मसला होता है, वे परमेश्वर की उपस्थिति में आते हैं, परन्तु प्रार्थना, प्रार्थना है और मसले, मसले हैं, और लोग सोचते हैं कि जब वे प्रार्थना करते हैं उन्हें मसलों के बारे में बात नहीं करनी चाहिए। तुम लोग कभी-कभार ही वास्तविक प्रार्थना करते हो, और तुम लोगों में से कुछ तो यह भी नहीं जानते हैं कि प्रार्थना कैसे करें; वस्तुतः, प्रार्थना उस बारे में बोलना है जो तुम्हारे हृदय में है, बिलकुल, एक साधारण बातचीत की तरह। हालाँकि कुछ लोग जब प्रार्थना करते हैं, तो वे ग़लत दृष्टिकोण अपना लेते हैं, और इस बात की परवाह किए बिना कि यह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है या नहीं, वे परमेश्वर से वह प्रदान करने की माँग करते हैं जिसकी वे प्रार्थना करते हैं। परिणामस्वरूप, जितनी अधिक वे प्रार्थना करते हैं, यह उतनी ही नीरस हो जाती है। प्रार्थना करते समयन, तुम्हारा हृदय जो कुछ भी माँगता, इच्छा करता है और विनती करता है, या जब तुम उन कुछ मसलों को सँभालना चाहते हो, जो तुम्हारी समझ में पूरी तरह से नहीं आते हैं तब तुम परमेश्वर से बुद्धि, शक्ति, या प्रबुद्धता माँगते हो, तो जिस तरह से तुम बोलते हो, तुम्हें उसमें तर्कसंगत अवश्य होना चाहिए। यदि तुम अतर्कसंगत हो, और तुम घुटनों के बल बैठते हो और कहते हो: "परमेश्वर मुझे सामर्थ्य प्रदान कर, और मुझे मेरा स्वभाव देखने दे, मैं तुझे ऐसा करने के लिए निवेदन करता हूँ। या मैं मुझे यह या वह देने के लिए तुझसे निवेदन करता हूँ, मैं मुझे ऐसा या वैसा बना देने के लिए तुझसे निवेदन करता हूँ, यह "निवेदन करता हूँ" शब्द में जबरदस्ती का एक तत्व होता है, और यह परमेश्वर से कुछ करवाने के लिए उस पर दबाव डालने के समान है। इसके अलावा, तुम अपने मसलों को पूर्वनिर्धारित कर लेते हो। भले ही तुम इस तरह से प्रार्थना करते हो, किन्तु पवित्र आत्मा इसे ऐसे देखता है: जब तुमने इसे स्वयं ही पहले से निर्धारित कर लिया है, और तुम इसे उसी तरह से करना चाहते हो, तो इस प्रकार की प्रार्थना का परिणाम क्या होगा? तुम्हें अपनी प्रार्थनाओं में खोजना और समर्पण करना चाहिए; उदाहरण के लिए, यदि तुम पर कोई समस्या आयी, जो तुम नहीं जानते कि इसे कैसे सँभालें, तब तुम कहते हो: "हे परमेश्वर! मेरे सामने यह समस्या आ गई है और मैं नहीं जानता इसे कैसे सँभालूँ। इस मसले में मैं तुझे सन्तुष्ट करने का इच्छुक हूँ, मैं तुझे खोजने का इच्छुक हूँ, मैं तेरी इच्छा पूर्ण हो जाने की अभिलाषा करता हूँ, मैं तेरे इरादों, न कि मेरे अपने इरादों, के अनुसार करने की अभिलाषा रखता हूँ। तू जानता है कि मनुष्य के इरादे तेरी इच्छाओं के उल्लंघन में होते हैं; वे तेरा विरोध करते और सत्य के अनुरूप नहीं होते हैं। मैं मात्र तेरे इरादों के अनुसार करने की अभिलाषा करता हूँ। मैं तुझे इस मसले में मुझे प्रबुद्ध करने और मेरा मार्गदर्शन करने की प्रार्थना करता हूँ, ताकि मैं तुझे क्रोधित न करूँ।…" प्रार्थना में इस स्वर से बोलना उपयुक्त है। यदि तुम मात्र यह कहते हो: "हे परमेश्वर, मैं तुझे मेरी सहायता और मेरा मार्गदर्शन करने के लिए कहता हूँ; मेरे लिए अनुकूल वातावरण और अनुकूल लोग तैयार कर, ताकि मैं अपने कार्य में अच्छी तरह से कर सकूँ," तो जब इस प्रकार कि प्रार्थना समाप्त हो जाती है, तुम तब भी नहीं जानते हो कि परमेश्वर की इच्छा क्या है, क्योंकि तुम परमेश्वर से तुम्हारे इरादों के अनुसार कार्य करवाने का प्रयास कर रहे हो।

 

सम्पूर्ण पाठ: https://hi.bible-nl.org/significance-and-practice-of-prayer.html

 

स्रोत: यीशु मसीह का अनुसरण करते हुए

 

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