स्वर्ग का राज्य बहुत निकट है; हम सच्चा पश्चाताप कैसे प्राप्त कर सकते हैं?

स्वर्ग का राज्य बहुत निकट है; हम सच्चा पश्चाताप कैसे प्राप्त कर सकते हैं?

 

स्वर्ग का राज्य बहुत निकट है; हम सच्चा पश्चाताप कैसे प्राप्त कर सकते हैं?

 

हाल ही के वर्षों में, आपदाएँ ज्यादा से ज्यादा भयंकर हो रही हैं, जैसे कि भूकंप, महामारियाँ, आगजनी, बाढ़ इत्यादि। कई लोगों ने महसूस किया है कि लगातार आने वाली आपदाएँ प्रभु के लौटने के संकेत हैं, और प्रभु का दिन हमारे करीब है। प्रभु यीशु ने कहा, "मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है" (मत्ती 4:17)। स्पष्टतः, जो सही मायने में पश्चाताप करते हैं सिर्फ वही परमेश्वर द्वारा सुरक्षा पा सकते हैं और आपदाओं में तबाह होने से बच सकते हैं। तो, सच्चा पश्चाताप क्या है? हम सच्चा पश्चाताप कैसे प्राप्त कर सकते हैं? आओ इस विषय को साथ मिलकर खंगालते हैं।

सच्चा पश्चाताप क्या है?

 

नीनवे के लोगों का पश्चाताप

 

सच्चे पश्चाताप की बात करते हुए, हमें उल्लेख करना होगा कि कैसे नीनवे के लोगों ने सही मायने में परमेश्वर के सामने पश्चाताप किया। जब नीनवे वालों ने योना के माध्यम से परमेश्वर के वचनों को सुना, "अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा" (योना 3:4)। उन्होंने परमेश्वर के वचनों पर विश्वास करके उनका पालन किया और वे पश्चाताप करने के लिए तैयार थे। नीनवे के राजा ने भी पश्चाताप का सिलसिलेवार आचरण किया: उसने अपने राजसी पद को किनारे कर, अपनी राजसी पोशाक को उतार दिया, और राख में बैठ गया, उसने लोगों और जानवर दोनों को उपवास रखने का आदेश भी दिया, और टाट के कपड़ों और राख के ढेर में परमेश्वर के सामने स्वीकार करने और पश्चाताप करने के लिए वयस्कों और बच्चों का नेतृत्व किया। नीनवे के लोगों ने अपने बुरे तरीकों से दूर होने और हिंसा को छोड़ने का अपने हाथों से संकल्प लेते हुए, अपने हृदयों में सच्चा पश्चाताप जाहिर किया। परमेश्वर ने उनके हृदय की गहराई की जाँच की, और अंततः उसका हृदय बदल गया और उसने उन्हें तबाह नहीं किया।

 

राजा दाऊद का पश्चाताप

 

बाइबल में राजा दाऊद के पश्चाताप का अनुभव भी दर्ज है। जब परमेश्वर यहोवा ने नबी नतन को दाऊद से बात करने और दाऊद को उसके पापों के बारे में अवगत कराने के लिए भेजा कि बतशोबा को अपने अधिकार में लेना और उरिय्याह को मारना एक बुरा कृत्य था, वह विशेष रूप से पछतावा करता था और खुद से नफरत करता था, वह रोज़ाना उपवास और परमेश्वर के आगे प्रार्थना कर रहा था, पश्चाताप कर रहा था और अपने पापों को स्वीकार कर रहा था और परमेश्वर से दया की माँग कर रहा था। उसने प्रार्थना की, "लौट आ, हे यहोवा, और मेरे प्राण बचा; अपनी करुणा के निमित्त मेरा उद्धार कर। … मैं अपनी खाट आँसुओं से भिगोता हूँ; प्रति रात मेरा बिछौना भीगता है" (भजन संहिता 6:4,6)। जब वह बूढ़ा हुआ, उसके सेवकों ने एक आद्वितीय सुंदर कुँवारी को उसका बिस्तर गर्म करने के लिए चुना, लेकिन दाऊद ने उसे कभी नहीं छुआ। पश्चाताप के इस मामले से, हम देख सकते हैं कि वह परमेश्वर से डरने वाला हृदय रखता था, और इसलिए उसने न केवल अपने पापों के लिए सच्चा पश्चाताप और नफरत महसूस की, बल्कि उसके पास सच्चे पश्चाताप और वास्तविक बदलाव से गुजरने की अभिव्यक्ति भी थी।

तो, यह देखना मुश्किल नहीं है कि सच्चा पश्चाताप प्रार्थनाओं में परमेश्वर के सामने अपने पापों और बुरे कर्मों को स्वीकार करने जितना आसान नहीं है, बल्कि हम क्या करते हैं और क्या हमारे पास वास्तविक बदलाव है, यह इस पर निर्भर करता है। सच्चे पश्चाताप को पाने के लिए, ख़ास तौर पर, हमें ये जानना होगा कि परमेश्वर का इंसान के पापों को लेकर क्या नज़रिया है, और हमें अपने पापों के सार और उससे होने वाले नुकसान के बारे में सचेत रहना चाहिए। सिर्फ इसी तरह हमारे अंदर परमेश्वर के लिए सच्ची श्रध्दा और डर पैदा हो सकता है, और तभी हम अपने पापों के लिए हृदय की गहराई से सच्चा पश्चाताप और नफरत महसूस करेंगे, हम हमेशा की तरह उसी पुराने रास्ते पर अब और नहीं चलेंगे, और हम एक बदलाव लाना शुरू करेंगे और नए लोग बनेंगे—सिर्फ यही सच्चा पश्चाताप है।

 

इस पर विचार करें कि क्या हमारे पास सच्चा पश्चाताप है

 

खुद पर विचार करें, क्या हमने सच्चा पश्चाताप हासिल किया है? शायद कुछ लोग कह सकते हैं, "प्रभु पर विश्वास करने से पहले, जब हमारे साथ कुछ हुआ होगा तो हम दूसरों के साथ झगड़े होंगे और हमने अपनी तरफ से बहस की होगी, लेकिन अब हम विनम्र हैं और दूसरों के साथ सहनशीलता और धीरज रखते हैं। पहले हम स्वार्थी थे और हमेशा केवल अपने हितों को अहमियत देते थे, लेकिन अब हमारे अंदर दूसरों के लिए थोड़ा प्रेम है और जब हम दूसरों को कमजोर देखते हैं तो मदद और सहयोग कर सकते हैं। क्या ये बाहरी अच्छे कर्म हमारे सच्चे पश्चाताप के उदाहरण नहीं हैं?" मगर, क्या हमने कभी इस बारे में सोचा है कि हम इस तरह से पछतावा कब तक कर सकते हैं? असल में, हम इसे अपने जीवन में तब महसूस कर सकते हैं, जब हमारे निजी हित दाँव पर नहीं होते हैं, हम दूसरों के साथ सहनशील और धैर्यवान हो सकते हैं और दूसरों के साथ झगड़ा नहीं करते। मगर, जब दूसरे लोग हमारे हितों में दखलंदाजी करना शुरू कर देते हैं या हमारे अहंकार को चोट पहुँचाते हैं, हम उनसे नफरत करते हैं, या उनसे बदला भी लेते हैं। हालाँकि हम बाहर से विनम्र होते हैं, जब दूसरे हमसे सहमत नहीं होते, हम हमेशा चाहते हैं कि वे हमारी बात सुनें, और भले ही हम उनसे बहस नहीं करते, फिर भी हम अपने ख्यालों को अपने अंदर ही रखते हैं और जो चाहते हैं वही करते हैं। इसके अलावा, हम झूठ भी बोलेंगे, दूसरों को धोखा भी देंगे, आपा भी खोयेंगे, अपना गर्म मिज़ाज भी दिखाएँगे, और दूसरों से नफरत भी करेंगे। हालाँकि हम अक्सर प्रार्थना करते हैं और अपने पापों को स्वीकार करते हैं, लेकिन ये सिर्फ मौखिक स्वीकृति है, और हमारे पापों के लिए वो नफरत या तिरस्कार नहीं है जो हम अपने दिल की गहराई से महसूस करते हैं। इसलिए, कुछ परिस्थितियों में हम वही पुरानी गलती दोहरायेंगे, और दिन में पाप करने और शाम को स्वीकार करने और कोई वास्तविक बदलाव न होने के दुष्चक्र में जियेंगे। प्रभु यीशु ने कहा, "कोई अच्छा पेड़ नहीं, जो निकम्मा फल लाए, और न तो कोई निकम्मा पेड़ है, जो अच्छा फल लाए। हर एक पेड़ अपने फल से पहचाना जाता है" (लूका 6:43-44)। मत्ती 3:8 कहता है, "मन फिराव के योग्य फल लाओ।" अपनी वास्तविक अभिव्यक्ति पर विचार करते हुए, हम देख सकते हैं कि जो हम सामने लाते हैं वह पाप का फल है और हमने सच्चा पश्चाताप और परिवर्तन हासिल नहीं किया है, जो दर्शाता है कि हम अभी भी पाप में जीते हैं और हमने बिल्कुल भी पश्चाताप नहीं किया है।

 

हमारे पापी स्वभाव का कारण है कि हम सच्चा पश्चाताप करने में विफल हैं

 

शायद कुछ लोग पूछेंगे, "हमारे पापों को क्षमा किया गया है क्योंकि हमने प्रभु यीशु के उद्धार को स्वीकार कर लिया है। लेकिन हम अभी भी पाप में क्यों जीते हैं और सच्चा पश्चाताप प्राप्त करने में असफल क्यों रहते हैं?" आओ परमेश्वर के वचनों के इन दो अंशों को पढ़ें, फिर हम इस प्रश्न को समझ जायेंगे।

 

परमेश्वर कहता है, "यद्यपि मनुष्य को छुटकारा दिया गया है और उसके पापों को क्षमा किया गया है, फिर भी इसे केवल इतना ही माना जा सकता है कि परमेश्वर मनुष्य के अपराधों का स्मरण नहीं करता है और मनुष्य के अपराधों के अनुसार मनुष्य से व्यवहार नहीं करता है। हालाँकि, जब मनुष्य जो देह में रहता है, जिसे पाप से मुक्त नहीं किया गया है, वह भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को अंतहीन रूप से प्रकट करते हुए, केवल पाप करता रह सकता है। यही वह जीवन है जो मनुष्य जीता है, पाप और क्षमा का एक अंतहीन चक्र। अधिकांश मनुष्य दिन में सिर्फ इसलिए पाप करते हैं ताकि शाम को स्वीकार कर सकें। इस प्रकार, भले ही पापबलि मनुष्य के लिए सदैव प्रभावी है, फिर भी यह मनुष्य को पाप से बचाने में समर्थ नहीं होगी। उद्धार का केवल आधा कार्य ही पूरा किया गया है, क्योंकि मनुष्य में अभी भी भ्रष्ट स्वभाव है।" "परमेश्वर के सलीब पर चढ़ने के कार्य की वजह से मनुष्य के पापों को क्षमा किया गया था, परन्तु मनुष्य पुराने, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव में जीवन बिताता रहा। ऐसा होने के कारण, मनुष्य को भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से पूरी तरह से बचाया जाना चाहिए ताकि मनुष्य का पापी स्वभाव पूरी तरह से दूर किया जाए और वो फिर कभी विकसित न हो, जो मनुष्य के स्वभाव को बदलने में सक्षम बनाये। इसके लिए मनुष्य के लिए आवश्यक है कि वह जीवन में उन्नति के पथ को, जीवन के मार्ग को, और अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के मार्ग को समझे। साथ ही इसके लिए मनुष्य को इस मार्ग के अनुरूप कार्य करने की आवश्यकता है ताकि मनुष्य के स्वभाव को धीरे-धीरे बदला जा सके और वह प्रकाश की चमक में जीवन जी सके, और वो जो कुछ भी करे वह परमेश्वर की इच्छा के अनुसार हो, ताकि वो अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दूर कर सके, और शैतान के अंधकार के प्रभाव को तोड़कर आज़ाद हो सके, और उसके परिणामस्वरूप पाप से पूरी तरह से ऊपर उठ सके। केवल तभी मनुष्य पूर्ण उद्धार प्राप्त करेगा।"

 

परमेश्वर के वचनों से हम देख सकते हैं कि हम अभी भी पाप क्यों करते हैं और सच्चा पश्चाताप हासिल क्यों नहीं कर सकते हैं, इसका कारण है कि हमारे पास शैतानी पापी प्रकृति है। जैसे कि हम जानते हैं, प्रभु यीशु ने, उस युग में इंसान की जरूरतों के अनुसार, छुटकारे का कार्य किया, और सलीब पर चढ़कर मानवजाति के लिए पाप बलि बन गया, और इंसान को अभिशापों और क़ानून के दंड से छुटकारा दिलाया। इसलिए, जब तक हम अपने पापों को प्रभु के सामने स्वीकार करके पश्चाताप करते हैं, तब तक हमारे पाप क्षमा किये जाते हैं, और तब हम उसकी भरपूर कृपा का आनंद लेने के योग्य होते हैं। हालाँकि, प्रभु यीशु ने हमें सिर्फ हमारे पापों से मुक्त किया है, लेकिन उसने हमारी पापी प्रकृति से हमें मुक्त नहीं किया है और शैतानी स्वभावों ने हमारे अंदर गहराई से जड़ें जमा ली हैं जैसे घमंड और अहंकार, स्वार्थ और अनीति, बेईमानी और कपट, और लालच और बुराई अभी भी हमारे अंदर बने हुए हैं और ये हमारे पाप का स्त्रोत हैं। अगर हम अपने आप को इन भ्रष्ट स्वभावों से छुड़ा नहीं पाए, तो हम लगातार पाप करेंगे और अनजाने में परमेश्वर का विरोध करेंगे। यह एक निर्विवाद तथ्य है। कहने का अर्थ है, अगर हमारे पापी स्वभाव और हमारे पाप के स्त्रोत को समाप्त नहीं किया जाता, तो चाहें हम प्रभु में कितने भी लम्बे समय से विश्वास करते हों, हम अभी भी सच्चा पश्चाताप हासिल नहीं कर सकते या पाप को नहीं रोक सकते हैं, और हम कभी भी परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं करेंगे।

 

सच्चा पश्चाताप कैसे प्राप्त करें

 

तो, हम सच्चा पश्चाताप कैसे प्राप्त कर सकते हैं? प्रभु यीशु ने भविष्यवाणी की, "मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा, क्योंकि वह अपनी ओर से न कहेगा, परन्तु जो कुछ सुनेगा, वही कहेगा, और आनेवाली बातें तुम्हें बताएगा" (यूहन्ना 16:12-13)। "जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहरानेवाला तो एक है: अर्थात् जो वचन मैंने कहा है, वह अन्तिम दिन में उसे दोषी ठहराएगा" (यूहन्ना 12:48)। बाइबल भविष्यवाणी करती है, "क्योंकि वह समय आ पहुँचा है, कि पहले परमेश्‍वर के लोगों का न्याय किया जाए" (1 पतरस 4:17)। इन पदों से देखा जा सकता है कि प्रभु यीशु ने जब अपना कार्य किया तो कई ऐसे सत्य हैं जो उसने हमें नहीं बताये। क्योंकि उस समय के लोगों को सिर्फ क़ानून से छुटकारा मिल गया था और वे छोटी सोच के थे, वे सभी फिर स्वीकार करने और पश्चाताप करने के आधार पर ही अपने पापों को जान सकते थे, और उनके भ्रष्ट स्वभावों को बदलने से संबंधित कोई भी गहरी सच्चाई उनकी समझ से बाहर थी। इसलिए, प्रभु यीशु ने हमसे वादा किया कि वह वो सत्य व्यक्त करने जो हम पहले नहीं समझते थे और हमारे पापों का न्याय करने के लिए अंत के दिनों में लौटेगा, ताकि हम अपने भ्रष्ट स्वभावों से बच सकें और सच्चा पश्चाताप प्राप्त कर सकें।

 

अब प्रभु यीशु लौट आया है और देह बन गया है। वह मानवजाति को शुद्ध करने और बचाने के लिए सभी सत्य व्यक्त करता है और मानवजाति के पापों की जड़ को पूरी तरह नष्ट करने के लिए परमेश्वर के घर से शुरू होने वाला न्याय का कार्य करता है, ताकि लोग सच्चा पश्चाताप और परिवर्तन प्राप्त कर सकें, और अब आगे और पाप तथा परमेश्वर का विरोध नहीं करें। यह प्रभु यीशु की भविष्यवाणी को पूरा करता है, "यदि कोई मेरी बातें सुनकर न माने, तो मैं उसे दोषी नहीं ठहराता, क्योंकि मैं जगत को दोषी ठहराने के लिये नहीं, परन्तु जगत का उद्धार करने के लिये आया हूँ। जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहरानेवाला तो एक है: अर्थात् जो वचन मैंने कहा है, वह अन्तिम दिन में उसे दोषी ठहराएगा" (यूहन्ना 12:47-48)। तो परमेश्वर हमें शुद्ध करने का न्याय-कार्य करने के लिए वचनों का उपयोग कैसे करता है और सच्चा पश्चाताप हासिल करने की अनुमति कैसे देता है? आओ परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ें।

 

सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों में अपने न्याय का कार्य कैसे करते हैं?

 

परमेश्वर के वचन कहते हैं, "अंत के दिनों में मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति समर्पण के लिए पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है।"

 

अंत के दिनों में, परमेश्वर लोगों को सच्चा पश्चाताप प्राप्त करवाने के लिए सत्य व्यक्त करता है। उसके वचनों में, परमेश्वर का विरोध और उसे धोखा देने की हमारी शैतानी प्रकृति, परमेश्वर के प्रति रवैया और सत्य के प्रति हमारे दृष्टिकोण और हमारे विश्वास में हमारी गलत खोज, और हमारे कार्यों की चीर-फाड़ और हमारे अंदरूनी विचार पूरी तरह उजागर हो जाते हैं। एक दोधारी तलवार की तरह, परमेश्वर के वचन हमारे दिलों को भेदते हैं, और हमें हमारी पाप की जड़ से अवगत कराते हैं और हम शैतान के हाथों हमारी भ्रष्टता की सच्चाई को स्पष्ट रूप से देखते हैं, वे हमें पहचानने देते हैं कि हमारी प्रकृति और सार कैसे पूरी तरह अहंकार, अभिमान, स्वार्थ और कपट से भरा है। हम स्पष्ट रूप से परमेश्वर की आवश्यकताओं के बारे में जानते हैं, लेकिन हम हमेशा इन शैतानी स्वभावों से नियंत्रित होते हैं, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हैं और अपनी इच्छा के विरूद्ध परमेश्वर का विरोध करते हैं, और सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ होते हैं, इसलिए हम शैतान का मूर्त-रूप बन गये हैं। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का सामना करते हुए, हम परमेश्वर के वचनों से पूरी तरह आश्वस्त हो गये हैं, हम परमेश्वर के सामने खुद को दंडवत करते हैं, और अपने आप से नफरत करना और खुद को कोसना शुरू कर देते हैं और इस तरह हमें सच्चा पश्चाताप प्राप्त होता है। साथ ही, हम यह भी गहराई से महसूस करते हैं कि परमेश्वर का वचन सत्य है, यह परमेश्वर के स्वभाव और उसके जीवन का प्रकाशन है। हम देखते हैं कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव अपमान बर्दाश्त नहीं करता है, और परमेश्वर की पवित्रता का सार दोषों को बर्दाश्त नहीं करता है। परिणाम यह होता है कि हमारे अंदर परमेश्वर का आदर करने वाला एक हृदय जन्म लेता है, और हम अपनी पूरी शक्ति लगाकर सत्य की खोज करने लगते हैं, और परमेश्वर के वचन के अनुसार आचरण करने लगते हैं। सत्य की अपनी धीमी समझ के साथ, हम हमारी शैतानी प्रकृति और शैतानी स्वभाव को ज्यादा से ज्यादा जानते हैं, और हम ज्यादा से ज्यादा परमेश्वर को भी जानते हैं। हम अपने पुराने पापों की भरपाई के लिए धीरे-धीरे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, और फिर हमारे भ्रष्ट स्वभावों को शुद्ध किया जा सकता है। हम धीरे-धीरे पाप के बंधनों से बच जायेंगे, शैतानी भ्रष्ट स्वभावों से अब और नियंत्रित नहीं होंगे, परमेश्वर की अब और बुराई या उपेक्षा नहीं करेंगे और हम वास्तव में परमेश्वर की आज्ञा मानने और आराधना करने और सच्चा पश्चाताप पाने में समर्थ होंगे। इस प्रकार, अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य को स्वीकार करना हमारे लिए सच्चे पश्चाताप को पाने का एकमात्र रास्ता है।

 

अब, परमेश्वर का न्याय का कार्य समाप्त होने वाला है और सभी तरह की आपदाएँ एक के बाद एक आ रही हैं, इसलिए हमारे पास पश्चाताप के ज्यादा मौके नहीं हैं। इस महत्वपूर्ण क्षण में, सिर्फ अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य को स्वीकार करने से हम पापों से बच सकते हैं और सच्चा पश्चाताप प्राप्त कर सकते हैं। अन्यथा, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का हमारा सपना कभी भी साकार नहीं होगा।

 

स्रोत: यीशु मसीह का अनुसरण करते हुए

 

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